Monday, April 10, 2017

The Myriad Shades of Anonymity

कुछ किरदार दिए हैं शायद खुदा  ने 
हमें निभाने के लिए 

चन्न लम्हे याद रखने के लिए 
कुछ ग़म भुलाने के लिए।  

खुद से पर्दा किया हुआ है जाने कब से 
मालूम नहीं 
हम वो नहीं हैं जो हम हैं ज़माने के लिए।  

थी बेपरवाही या लापरवाही हमें मालूम नहीं 
पर अब बचे ही नहीं कोई रिश्ते निभाने के लिए।  

ज़िन्दगी जीने के लिए उसे समझना ज़रूरी नहीं है
पर ज़िन्दगी लग जाती है यह बात समझने और समझाने के  लिए

Thursday, April 6, 2017

पांच रूपये का पेन : अशोध्य ऋणों और सामाजिक मूल्यों की तुलनात्मक समीक्षा


आज सुबह के अखबार में जब मैने उत्तर प्रदेश सरकार  की ऋण-मुक्ति की घोषणा पढ़ी , तो मुझे अपने  व्यवसायिक जीवन के कुछ अनुभव याद आ गए |  और जब मैंने आज के सन्दर्भ में  उन स्मृतियों का पुनः विश्लेषण किया , तो कुछ अत्यंत असुविधाजनक  निष्कर्ष मेरे समक्ष आ खड़े हुए |

पहला यह , कि इस देश में राजनीती का स्तर काफी  नीचे गिर चूका है और दोगलेपन की सारी  सीमयायें तोड़ी जा चुकी हैं | हालत यह है अब राजनीतक दल दिखावे का दिखावा भी नहीं करते | अब वादों को पूरा ना  कर पाने बहाने  नहीं दिया जाते , बल्कि उन वादों को जुमलों की उपाधि देकर , कहकहे लगाये जाते हैं | अंतर्विरोधी नीतियों को विकाशील बताया जाता है | मिथ्या को धड़ल्ले से सत्य कहा जाता है और विचार-विभिन्नता को राष्ट्र विरोधी |

दूसरा , और मेरे अनुसार अधिक चिंताजनक निष्कर्ष यह सामने आया , कि लोग , खासकर शहरों के पढ़े लखे नागरिक, इस तरह की राजनीती और व्यहवार को सहजता से स्वीकार रहे हैं | उनका सारा ध्यान केवल और केवल आर्थिक अंकों तक सीमित रह गया है |

यह विडंबना है सूचना विज्ञान की क्रांति के दौर में लोग विचारों से रिक्त होते जा रहे हैं | व्यर्थ के विषयों पर सोशल मीडिया पर हजारों लाखों टिप्पणियां ( कुछ तो अत्यंत आवेशपूर्ण) देखने को मिल जाती हैं | परन्तु अपनी सोच की परतंत्रता पर लोग चिंता तक नहीं जाता रहे | विद्रोह तो बहुत दूर की बात है |
परन्तु मैं अभिव्यक्ति के भाव में काफी भटक गया था | अब मुद्दे पर वापिस आता हूँ |

यह बात उन दिनों  की है जब मै ऋण-वसूली  के क्षेत्र में वकालत करता था | तब भी  अनिश्पादित ऋण एक गंभीर समस्या थे , परन्तु न्यूज़ चैनल उन्हें गंभीरता से लेने  के लिए तत्पर ना  थे और सरकार भी इस अनामिकता से संतुष्ट थी | यह अलग बात है कि इन खातों पर जो चिंता आज कल जताई है , वह भी मौखिक और आडम्बरी है | ( यदि ऐसा न होता तो एक ऋणग्रस्त  सज्जन सम्मानपूर्वक देश छोड़ कर जाने में सफल न होते ) |

वकालत के दौरान मुझे भांति भांति के समस्यात्मक  अनिश्पादित ऋणों की वसूली सम्बंधित मुकदमें लड़ने पड़े | कहीं ऋणी लुप्त था तो कहीं ज़मानती | कहीं ऋणपत्र नदारद थे तो कहीं  गिरवी रखी गयी ज़मीन ही तिरोहित हो गयी थी | इस दौरान मुझे कई ऐसे ऋणों की समीक्षा का भी अवसर मिला, जहां राशी इनती विशाल थी और ऋणी की नीयत  इतनी खोटी , कि सरकार  को विवश होकर उन्हें स्वेछाचारी बाकीदार घोषित करना पड़ा |

मेरी अवस्था का एक कृत्य लीगल ऑडिटिंग भी था, जिसके चलते मुझे कई बैंकों  की स्थानीय शाखाओं में जाकर वहां के ऋण खातों का निरीक्षण  करना पड़ता था | उन स्वस्थ खातों को देख मेरी आँखें अक्सर भर आया करती थीं , क्योंकि मुझे अप्पने दफ्टर में  में पड़े उन मरे साँपों की याद आ जाती |

एक बार एक शाखा में जब निरीक्षण के लिए पहुंचा तो मैंने देखा कि वहां थोड़ा  कोलाहल मचा हुआ है | काउंटर के पीछे बैठे हुए बैंक के एक कर्मचारी ने एक ग्राहक को काउंटर पर पड़े एक पेन को उठाकर ले जाते देख लिया और लताड़ लगा दी | बस उस ग्राहक ने भी आपा खो दिया , और क्लर्क को खरी खोटी सुना दी | आखिर ५ रुपये  के पेन के पीछे कौन अपनी गरिमा को गिरने दे ( वैसे सोचने पे आयें , यदि एक पांच रुपए का पेन आपकी गरिमा को ठेस पहुंचा सकता है , तो आपके गरिमा का मूल्य क्या  है ?)

बरहाल , काफी समय लग गया स्थिति को सामान्य बनाने में | यदि वहां बाकी ग्राहकों की भीड़ न होती तो निश्चित ही वह संघर्ष शाम तक चलता | शायद बुद्धि की तुलना में अभिमान ज्यादा  कीमती है |

ताकि अगली बार ऐसी घटना न घट सके  , शाखा प्रबंधक ने शाम को ये आदेश जारी  कर दिया कि  कर्मचारी बैंक के सभी पेनों को काउंटर पर पड़ी  तख्तियों से बाँध कर रखें  | इससे न तो किसी ग्राहक को पेन उठाने/चुराने  का मौका  मिलेगा और शाखा हर माह चोरी/लुप्त हुए  पेनों की खरीदारी पर पैसा बहाने से भी बच जाएगी  | निर्देश के अंतिम शब्द कर्मचारियों की अंतरात्मा को संबोधित थे : “ पेन से लगा हर धागा बैंक की तरफ आपकी निष्ठा  का प्रतीक होगा और हर सुरक्षित  पेन से बचाई  हुई रकम बैंक व् देश  की उन्नति में सहकारी होगी |”

इस भावनात्मक निर्देश को पढ़ के मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि यह समर्पण का भाव उस समय कहाँ खो था जब लाखों करोढ़ों के ऋण संदिघ्द  पूंजीपतियों को बांटे जा रहे थे | वे ऋण जो अब देश की तो नहीं परन्तु उन महानुभावों की व्यक्तिगत  उन्नति में सहयोगी बन रहे हैं  | वे ऋण जो आपकी और मेरी जमा की गयी राशी से वितरित किये गए , और जिनसे इन पूंजीपतियों ने विदेशों में सोने की खदानें  करीद ली हैं, अखबार खरीद लिए हैं , सरकार  खरीद ली है और इंसान खरीद लिए हैं | यह वही ऋण हैं जिनका उपयोग करके ये पूंजीपति दुनिया की सर्वाधिक धनवानों की सूची में आ चुके हैं ( और न्यूज़ चैनल हमें  इस उपलब्धि की बधाई दे रहे हैं , क्योंकि यह देश की और हम लोगों की समृधि का प्रमाण है ) |

वे ऋण जो शायद किसी गरीब को इलाज के लिए दिए जा सकते थे | वे ऋण जो एक विद्यार्थी को इसलिए नहीं मिल पाए क्योंकि उसके माता पिता सम्पतिहीन हैं | वे  ऋण जो शायद उन पूंजीपतियों के साथ विदेश जा चुके हैं | जो शायद उन खातों में अब नहीं आयेंगे और  एक दिन राईट-ऑफ कर दिए जायंगे |  और फिर वे ऋण अस्ति-वसूली शाखा में प्रबंधन के लिए भेज दिए जायेंगे | पर शाखा प्रबंधक सिर्फ  ५ रूपये के  पेनों को खूंटे से बंध्वायेंगे |

कार्ल मार्क्स ने कहा था की धर्म लोगों के लिए अफीम है | अब  विकास के थोथे कीर्तिमान , स्मार्ट मोबाइल फ़ोन और फ्री इंटेरनेट आज के मध्यम  वर्ग के लिए अफीम ज़रूर बन गए हैं |  स्वभावत: अब किफायती  4-G कनेक्शन  किसानों की क्षुद्र समस्याओं से ज्यादा महत्पूर्ण विषय है  | और हमे क्या प्रयोजन है गरीबों की गरीबी से जब तक पिज़्ज़ा के साथ चॉकलेट- मफिन मुफ्त मिलते रहें | शायद वो प्रभंधक सही था | लोगों के लिए उन  ५ रुपये का मूल्य अपनी आजादी से भी ज्यादा है | और वह धागा उनका भाग्य विधाता है |

सितम्बर २०१६ तक अशोध्य ऋणों का मूल्य ६.५ लाख करोड़ छु गया था | इस संख्या में वृद्धि हनी के पूरे असार नज़र आ रहे हैं | सरकार ने हाल ही में एक “ बाद डेट्स बैंक “ यानी  अशोध्य  व संदिग्ध  ऋणों के लिए एक अलग बैंक बनाने की बात कही है | देखना यह है , कि जिस गति से अनिश्पादित ऋणों की संख्या बाद रही , क्या एक अलग बैंक का निर्माण इस समस्या का समाधान कर पायेगा ? या फिर इन ऋणों का बोझिल कंकाल आम आदमी को ही ढोना  पड़ेगा ?